नई दिल्ली : हिन्दू धर्म के अनुसार शनिवार के दिन भगवान शनिदेव की पूजा की जाती है। शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने से शनिदेव की अनुकंपा बनी रहती है और जातक के सभी दुख दूर होते हैं।
अग्नि पुराण के अनुसार शनि ग्रह की से मुक्ति के लिए ‘मूल’ नक्षत्र युक्त शनिवार से आरंभ करके सात शनिवार शनिदेव की पूजा करनी चाहिए और व्रत करना चाहिए। भगवान शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए आप शनिदेव का व्रत कर रहे हैं, तो शनिवार व्रत कथा को पढ़कर या सुनकर इस उपवास को पूर्ण करें।
शनिवार व्रत कथा इस प्रकार से है-
एक समय में स्वर्गलोक में ‘सबसे बड़ा कौन?’ के प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया। विवाद इतना बढा कि परस्पर भयंकर युध्द की स्थिति बन गई। निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इन्द्र के पास पहुंचे और बोले- हे देवराज, आपको निर्णय करना होगा कि हममें से सबसे बड़ा कौन है? देवताओं का प्रश्न सुन इन्द्र उलझन में पड़ गए। उन्होंने सभी को पृथ्वीलोक में राजा विक्रमादित्य के पास चलने का सुझाव दिया।
इन्द्र बोले- मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूं। हम सभी पृथ्वीलोक में उज्जयिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं। उनके सिंहासन में अवश्य ही कोई जादू है कि उस पर बैठकर वे भेदभावरहित न्याय करते हैं। इससे वे अत्यंत लोकप्रिय हैं। फिर देवराज इंद्र सहित सभी ग्रह (देवता) उज्जयिनी नगरी राजा विक्रमादित्य के दरबार में पहुंचे। वहां स्वयं राजा विक्रमादित्य ने उनका स्वागत किया। महल में पहुँचकर जब देवताओं ने उनसे अपना प्रश्न पूछा तो राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान थे। किसी को भी छोटा या बडा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी।
अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं जैसे सोना, चांदी, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाएं। धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवाकर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा। उन्होंने कहा- जो जिसका आसन हो ग्रहण करें। देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा- ‘आपका निर्णय तो स्वयं हो गया। जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वहीं सबसे बडा है तथा जिसका बाद में है वह सबसे छोटा है। चूंकि लोहे का आसन सबसे पीछे था इसलिए शनिदेव समझ गए कि राजा ने मुझे सबसे छोटा बना दिया है।
राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देव क्रोधित होकर बोले- ‘राजा विक्रमादित्य, तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो। सूर्य एक राशि पर एक महीने, चन्द्रमा दो महीने दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, बृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी भी राशि पर ढ़ाई वर्ष से लेकर साढ़े सात वर्ष (साढे साती) तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है अब तू भी मेरे प्रकोप से सावधान रहना। राम को साढे साती के कारण ही वन में जाकर रहना पडा और रावण को साढे साती के कारण ही युध्द में मृत्यु का शिकार बनना पडा। उसके वंश का सर्वनाश हो गया। राजा, अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा। मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूँगा।
राजा विक्रमादित्य शनि देवता के प्रकोप से थोडा भयभीत तो हुए लेकिन उन्होंने मन में विचार किया कि मेरे भाग्य में जो लिखा होगा, ज्यादा से ज्यादा वही तो होगा। फिर शनि के प्रकोप से भयभीत होने की क्या आवश्यकता है। जो कुछ भाग्य में होगा देखा जाएगा। इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परंतु शनिदेव बडे क्रोध के साथ वहां से विदा हुए। राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे। उनके राज्य में सभी स्त्री-पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे। कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। उधर शनि देवता अपने अपमान को भूले नहीं थे।
कुछ समय बाद विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोडे के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोडों के साथ उज्जयिनी नगरी पहुंचे। राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोडे के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोडे खरीदने के लिए भेजा। अश्वपाल ने वहां जाकर घोडों को देखा तो बहुत खुश हुआ। लेकिन घोडों का मूल्य सुनकर उसे बहुत हैरानी हुई। घोडे बहुत कीमती थे। अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा विक्रमादित्य ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोडे को पसंद किया। घोडे की चाल देखने के लिए राजा उस घोडे पर जैसे ही सवार हुए तो वह घोडा बिजली की गति से दौड पडा। तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर वहां राजा को गिराकर गायब हो गया।
राजा अपने नगर लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा लेकिन उन्हें लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उन्हें एक चरवाहा मिला। राजा ने उससे पानी मांगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी और उससे रास्ता पूछकर जंगल से निकलकर पास के नगर में पहुंचा। नगर पहुंच कर राजा एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया। उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्जयिनी नगरी से आया हूं। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठ की बहुत बिक्री हुई। सेठ ने राजा को भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन पर ले गया। सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था। राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर चला गया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी।
राजा के देखते-देखते खूंटी सोने के उस हार को निगल गई। सेठ ने जब हार गायब देखा तो उसने चोरी का संदेह राजा पर किया और अपने नौकरों से कहा कि इस परदेशी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो। राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उसके देखते ही देखते खूंटी ने हार को निगल लिया। इस पर राजा क्रोधित हुए और उन्होंने चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया। राजा विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटकर उसे नगर की सडक पर छोड दिया गया। कुछ दिन बाद एक तेली उन्हें उठाकर अपने घर ले गया और उसे कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई।
राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लडकी राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी। उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा। दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई। अत: उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया। राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वह हैरान रह गए। राजा को लगा कि उसकी बेटी पागल हो गई है। रानी ने मोहिनी को समझाया- ‘बेटी, तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है। फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पाँव पर कुल्हाडी क्यों मार रही है? राजा ने किसी सुंदर राजकुमार से उसका विवाह करने की बात कही। लेकिन राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोडी। अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया।
आखिर राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पडा। विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा- ‘राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया। मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है। राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- ‘हे शनिदेव! आपने जितना दु:ख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना। शनिदेव ने कुछ सोचकर कहा- राजन, मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूं। जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, कथा सुनेगा, जो नित्य ही मेरा ध्यान करेगा, चींटियों को आटा खिलाएगा वह सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त होता रहेगा तथा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। उस पर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी। उसे कोई दु:ख नहीं होगा। यह कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए।
प्रात:काल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पाँव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उन्होंने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पाँव सही-सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई। तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई। इधर सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौडता हुआ तेली के घर पहुंचा और राजा विक्रमादित्य के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। राजा ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि वह जानते थे कि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था। सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहां एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूँटी ने हार उगल दिया। सेठ ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया।
राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ अपने नगर उज्जयिनी वापस पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष के साथ उनका स्वागत किया। उस रात उज्जयिनी नगरी में दीप जलाकर लोगों ने दिवाली मनाई। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रतकथा अवश्य सुनें। राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकमनाएं शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगीं। सभी लोग आनंदपूर्वक रहने लगे।
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